नई दिल्ली: देश की सर्वोच्च अदाल आज चुनावी बांड (Electoral Bonds) योजना की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाले कई अनुरोधों पर सुनवाई कर रहा है, जो देश में किसी को भी (राजनीतिक दलों) गुमनाम रूप से धन दान करने की अनुमति देता है।
आज इसी मुद्दे को लेकर मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच-न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ दो महत्वपूर्ण मुद्दों पर गौर करेगी। जिसमें पहला है राजनीतिक दलों को गुमनाम दान की वैधता और दूसरा राजनीतिक दलों के वित्तपोषण के बारे में नागरिकों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन। तो चलिए जानते हैं कि क्या है चुनावी बांड (Electoral Bonds) और इसे कौन खरीद सकता है?…
चुनावी बांड क्या हैं?
चुनावी बांड एक वित्तीय साधन है जो व्यक्तियों और व्यवसायों को बिना घोषित किए राजनीतिक दलों को धन दान करने की अनुमति देता है। इन्हें भाजपा सरकार ने 2018 में नकद दान के विकल्प के रूप में पेश किया था। इन्हें राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने की पहल के रूप में पेश किया गया था।
योजना के प्रावधानों के अनुसार, चुनावी बांड भारत के किसी भी नागरिक या भारत में निगमित या स्थापित इकाई द्वारा खरीदा जा सकता है।
कौन खरीद सकता है चुनावी बांड?
जब कोई व्यक्ति या संगठन इन बांडों को खरीदता है, तो उन्हें जनता या दान प्राप्त करने वाले राजनीतिक दल को अपनी पहचान बताने की आवश्यकता नहीं होती है।
ये बांड भारतीय स्टेट बैंक (SBI) की सभी शाखाओं में 1,000 रुपये से लेकर 1 करोड़ रुपये तक के कई मूल्यवर्ग में उपलब्ध हैं। ये दान ब्याज मुक्त भी हैं।
हालांकि, दान करने वाले किसी भी दाता (दानी) की पहचान सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं की जाती है, सरकार और बैंक क्रेता के विवरण का रिकॉर्ड रखते हैं। यह जानकारी ऑडिटिंग उद्देश्यों के लिए रखी जाती है और यह सुनिश्चित करने के लिए कि फंडिंग के केवल वैध स्रोतों का उपयोग किया जाता है।
कौन-कौन सी पार्टियां चुनावी बांड के माध्यम से धन प्राप्त कर सकती हैं?
बात दें कि केवल जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29A के तहत पंजीकृत राजनीतिक दल और जिन्हें लोकसभा या राज्य विधान सभा के पिछले चुनाव में कम से कम 1 प्रतिशत वोट मिले हों, वे चुनावी बांड प्राप्त करने के पात्र हैं।
अधिसूचना के अनुसार, चुनावी बांड को किसी पात्र राजनीतिक दल द्वारा केवल अधिकृत बैंक के खाते के माध्यम से भुनाया जाएगा।
चुनावी बांड के खिलाफ तर्क क्या है?
सुप्रीम कोर्ट आज चुनावी बांड को चुनौती देने वाली चार याचिकाओं पर सुनवाई करेगा, जिनमें कांग्रेस नेता जया ठाकुर और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) द्वारा दायर याचिकाएं भी शामिल हैं। योजना की शुरुआत के बाद से, यह बहस का विषय रहा है, आलोचकों ने सवाल उठाया है कि क्या यह योजना वास्तव में राजनीति में पारदर्शिता लाई है।
क्या है याचिका कर्ताओं की मांग?
दानदाताओं की गुमनामी के कारण यह आरोप लगने लगा है कि यह संभावित रूप से राजनीति में भ्रष्टाचार और पक्षपात को बढ़ावा दे सकता है। दानकर्ता की पहचान जनता या चुनाव आयोग के सामने प्रकट नहीं की जाती है, जिससे राजनीतिक योगदान के स्रोत का पता लगाना मुश्किल हो जाता है।
केंद्र का रुख क्या है?
अदालत की सुनवाई से पहले, अटॉर्नी जनरल (एजी) आर वेंकटरमणी ने अदालत को बताया कि नागरिकों को धन के स्रोत के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत जानकारी का अधिकार नहीं है।
यह मानते हुए कि राजनीतिक दलों के वित्तपोषण के लिए चुनावी बांड योजना स्वच्छ धन में योगदान करती है, शीर्ष कानून अधिकारी ने कहा है कि उचित प्रतिबंधों के अधीन हुए बिना “कुछ भी और सब कुछ” जानने का कोई सामान्य अधिकार नहीं हो सकता है।
एजी ने एक बयान में कहा, “संबंधित योजना योगदानकर्ता को गोपनीयता का लाभ देती है। यह योगदान किए जा रहे स्वच्छ धन को सुनिश्चित करती है और बढ़ावा देती है। यह कर दायित्वों का पालन सुनिश्चित करती है। इस प्रकार, यह किसी भी मौजूदा अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है।”
किस पार्टी को मिला है सबसे ज्यादा चंदा?
चुनाव आयोग के आंकड़ों से पता चलता है कि मार्च 2018 और 2022 के बीच खरीदे गए सभी चुनावी बांडों में से आधे से अधिक भाजपा को मिले।
भाजपा को कुल ₹9,208 करोड़ में से ₹5,270 करोड़ या 2022 तक बेचे गए कुल चुनावी बांड का 57 प्रतिशत प्राप्त हुआ।
मुख्य विपक्षी कांग्रेस पार्टी इसी अवधि में ₹964 करोड़ या 10 प्रतिशत प्राप्त करके दूसरे स्थान पर रही, जबकि पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को ₹767 करोड़ या सभी चुनावी बांड का 8 प्रतिशत प्राप्त हुआ।