नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की बेंच ने 4:3 के बहुमत से फैसला सुनाया कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) भारत के संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जे का हकदार है.
मामले में सीजेआई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा ने एकमत से फैसला दिया है जबकि जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा ने डिसेंट नोट दिया है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा 4-3 के बहुमत से 1967 के उस फैसले को खारिज कर दिया गया जो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इनकार करने का आधार बना था. हालांकि कोर्ट के इस फैसले में विकसित सिद्धांतों के आधार पर AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को नए सिरे से निर्धारित करने का काम तीन जजों की बेंच पर छोड़ दिया गया है.
कोर्ट ने फैसले में क्या-क्या कहा?
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने सुनवाई के दौरान कहा कि “एक बात जो हमें चिंतित कर रही है, वह यह है कि AMU अधिनियम में 1981 का संशोधन 1951 से पहले की स्थिति को बहाल नहीं करता है. दूसरे शब्दों में कहें तो 1981 का संशोधन आधे-अधूरे मन से किया गया काम है. न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि अनुच्छेद 30A के तहत किसी संस्था को अल्पसंख्यक माने जाने के जो मानदंड है उसे AMU पूरा करता है. इसलिए हम मूल 1920 के कानून पर वापस जा रहे हैं, इस (संस्था) को पूर्ण अल्पसंख्यक दर्जा प्रदान करते हैं.
क्या है अनुच्छेद 30 का मानदंड जिसके तहत किसी संस्था को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाता है ?
- सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म या भाषा पर आधारित हों, अपनी पसंद की शैक्षणिक संस्थाएं स्थापित करने और उनका प्रशासन करने का अधिकार
- अनुच्छेद 19(6) के तहत दी गई विनियमन की अनुमति
- राज्य, शैक्षिक संस्थाओं को सहायता प्रदान करते समय, किसी भी शैक्षिक संस्था के विरुद्ध इस आधार पर भेदभाव नहीं करेगा कि वह किसी अल्पसंख्यक के प्रबंधन के अधीन है, चाहे वह धर्म या भाषा पर आधारित हो.
इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला खारिज
AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर विवाद पिछले कई दशकों से कानूनी पचड़े में फंसा हुआ था. साल 2005 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1981 के AMU अधिनियम को असंवैधानिक करार देते हुए इसे रद्द कर दिया. भाजपा के नेतृत्व वाली NDA सरकार ने AMU अधिनियम में 1981 के संशोधन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और इस बात पर जोर दिया था, कि अदालत को 1967 में एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले के अनुसार चलना चाहिए. बता दें कि संविधान पीठ ने तब अपने फैसले में कहा था कि चूंकि AMU एक केंद्रीय यूनिवर्सिटी है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता है.
गौरतलब है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1981 के कानून के उस प्रावधान को खारिज कर दिया था जिसके तहत यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा दिया गया था. केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली UPA सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ 2006 में अपील दायर की थी. यूनिवर्सिटी ने भी इसके खिलाफ एक अलग याचिका दायर की थी. लेकिन भाजपा के नेतृत्व वाली NDA सरकार ने 2016 में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह 2006 में UPA सरकार द्वारा दायर अपील वापस लेगी. 12 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट की तत्कालीन CJI रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने इस विवादास्पद मुद्दे को सात न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया. जिस पर सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 4:3 के बहुमत से सुनाया फैसला है.
AMU अधिनियम में किन संशोधनों के चलते हुआ विवाद ?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि AMU अधिनियम में 1981 का संशोधन के बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा प्रदान किया गया था. लेकिन यह आधे-अधूरे मन से किया गया काम था, क्योंकि इस संशोधन में संस्थान को 1951 से पहले वाली स्थिति बहाल नहीं की. AMU अधिनियम 1920 अलीगढ़ में एक शिक्षण और आवासीय मुस्लिम यूनिवर्सिटी स्थापित करने की बात करता है लेकिन अधिनियम में 1951 का संशोधन यूनिवर्सिटी में मुस्लिम छात्रों के लिए अनिवार्य धार्मिक शिक्षा को समाप्त कर देता है.
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ज्ञात हो कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना 1875 में सर सैयद अहमद खान के नेतृत्व में प्रमुख मुस्लिम समुदाय के सदस्यों द्वारा मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के रूप में की गई थी. कई साल बाद 1920 में यह ब्रिटिश राज के तहत एक यूनिवर्सिटी में तब्दील हो गया.