नई दिल्ली/डेस्क: नवंबर की शुरूआत ही हुई है और दिल्ली का दम घुटना शुरू हो गया है. अभी तो ठीक से नो क्रेकर्स वाली दीवाली की अपील भी नहीं हुई कि पेरेंट्स ने अपील शुरू कर दी हैं कि कुछ दिनों के लिए स्कूल बंद किए जाएं. जिसके बाद दिल्ली सरकार ने दो दिन के लिए प्राइमरी स्कूल भी बंद करवा दिए. लेकिन सवाल है आखिर ऐसा कब तक चलेगा?
अगर आपके बच्चे छोटे हैं तो शायद आपको पता हो कि दिल्ली एनसीआर में आजकल बच्चों के डॉक्टरों का अपॉइंटमेंट मिलना कितना मुश्किल हो गया है. लंबी कतारें, लंबी वेटिंग और वेंटिग एरिया में भी खांसते-छींकते, सांस की दिक्कत झेलते बच्चे दिखाई दे रहे है. बुजुर्गों का और बुरा हाल है अस्थमा के मरीज़ों की तो जान पर बनी हैं. बच्चे पूछ रहें है. अब बड़ो ने ऐसा क्या किया? मां स्कूल फिर क्यूं बंद है? हम घर पर क्यूं दुबके पड़े हैं? बाहर ये कैसी धुंध है?
अब सवाल उठता है आखिर समस्या की जड़ क्या है? हर साल उत्तर भारत में अक्टूबर नवंबर में ये समस्या आती है. जब धान की कटाई के बाद खेत में पराली छूटती है और किसान उसको जलाते हैं. बीते कुछ सालों में हमारे बच्चों की वोकैबलरी में जिन शब्दों का इज़ाफा हुआ है उनमें लॉकडॉउन, ऑनलाइन, क्वारनटीन के बाद पराली भी है. पराली की समस्या क्या है? इसका समाधान क्या हैं? ज़ाहिर तौर पर टीवी स्टूडियों की चर्चा से इसका हल नहीं निकल सकता. धान कटने के बाद किसान को फिर खेत खाली चाहिए होता है ताकि अगली फसल बोई जा सके और खेत खाली करने के तमाम विकल्पों में सबसे सुविधाजनक सबसे सस्ता होता है पराली जलाना. क्या सरकार और प्रशासन चला रहे लोग इतने सक्षम नहीं हैं कि हर साल सांसो के इस संकट का मज़बूत समाधान निकाल सकें. ओ माई गॉड दिस पॉल्यूशन इज़ किलिंग कहकर एयर प्यूरीफायर लगाकर अपने कमरे में बैठे लोगों से गुजारिश है बाहर आकर देखिए छोटे छोटे बच्चों को.
आप संस्थाएं तो बंद करा सकते हैं, स्कूल से छुट्टी तो दिला सकते हैं लेकिन बचपन घर में कैद करके कैसे रख लें. वैसे तो कंपटीशन बच्चे के आईक्यू लेवल को बढ़ाने का रहता है. लेकिन जब एनसीआर में कंपटीशन एक्यूआई लेवल का चल रहा हो तो बंद कमरे में बैठा बच्चा क्या करेगा. खुली हवा में सांस लेने का हक इनसे कौन छीन रहा है? क्या किसान के पास और विकल्प नहीं हैं. क्या सरकारों के पास और रास्ते नहीं है. एक सरकार चुनकर आती है और चुन के आने के बाद दोबारा चुनाव के लिए मेहनत करने लगती है, लेकिन इसके बीच उन वादों को पूरा करना भी सरकार का काम हैं जिसके लिए वो चुनकर आएं हैं. अगर एक सरकार मुफ्त बिजली पानी की सब्सिडी का खर्चा उठा सकती है तो खेती प्रधान राज्यो में किसानों की इन समस्याओं का कोई तो ठोस स्थाई हल उसके पास होना ही चाहिए. इसलिए किसानों और सरकारों को अपने कर्तव्यपथ पर आना होगा.
क्यूंकि पराली आज ही जलाई जा रही है ऐसा भी नहीं हैं. कहीं ऐसा ना हो कि बीते नंवबर की तरह ये नवंबर भी बीत जाएं और हम फिर अगले नवंबर इस पर ही चर्चा करें.
लेखक: इमरान अंसारी