रूस और चीन ने अमेरिका के खिलाफ चली चाल, डॉलर ही क्यों ताक़तवर?

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नई दिल्ली/डेस्क: रूस और चीन लंबे समय से डॉलर को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं. दोनों ही ब्रिक्स के जरिए ऐसा करने की कोशिश कर रहे हैं. दोनों ही देश बाकी देशों को मनाने में लगे हैं कि वो डॉलर की बजाय अपनी करेंसी में कारोबार करें. लेकिन क्या ऐसा हो सकता है? और आखिर डॉलर को चुनौती क्यों दे रहे है?

दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क अमेरिका को चुनौती मिल रही है. ये चुनौती मिल रही है चीन और रूस से. इनका मकसद है कि अमेरिकी करेंसी डॉलर की ताक़त को कम करना. इनका मानना है कि कारोबार सिर्फ डॉलर में ही क्यों हो? जब हर देश की अपनी करेंसी है तो उसी में क्यों न कारोबार किया जाए? इसके लिए चीन और रूस अब ब्रिक्स का सहारा ले रहे हैं. ब्रिक्स यानी वो संगठन जिसमें ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन और साउथ अफ्रीका हैं.

इनके अलावा छह और नए देश – सऊदी अरब, यूएई, ईरान, इथियोपिया, अर्जेंटीना और मिस्र ब्रिक्स के सदस्य बन गए हैं. यानी, अब ब्रिक्स में कुल 11 सदस्य हो गए हैं. हाल ही में साउथ अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में जो 15वीं ब्रिक्स समिट हुई है, उसमें भी अपनी करेंसी में कारोबार करने पर चर्चा हुई. हालांकि, अभी इसका कुछ नतीजा नहीं निकला है. लेकिन ब्रिक्स के कुछ देश डॉलर की बजाय दूसरी करेंसी में कारोबार करने की इच्छा जता चुके हैं.

अमेरिकी डॉलर का दबदबा कम करने की बात सिर्फ चीन और रूस ही नहीं करते, बल्कि ब्राजील भी करता है. कुछ समय पहले चीन और ब्राजील में एक समझौता हुआ था. जिसके तहत, दोनों ने तय किया है कि वो चीनी करेंसी युआन में कारोबार करेंगे. ब्रिक्स से जुड़े चीन, रूस और ब्राजील ही नहीं, बल्कि अभी जो छह नए देश इसके सदस्य बने हैं, उनमें ज्यादातर अमेरिका के विरोधी हैं और वो भी अपनी- अपनी करेंसी में कारोबार करने की बात कहते रहे हैं.

इसके अलावा डॉलर की बजाय अपनी करेंसी में कारोबार करने की बात इसलिए भी होती रहती है, क्योंकि कई देशों को डर सताता है कि अमेरिका से अनबन हुई, तो वो रूस और ईरान की तरह उन पर भी प्रतिबंध लगा देगा.

अब सवाल ये भी है कि डॉलर इतना ताकतवर कैसे बना? तो चलिए जानते है.

दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने से पहले ही दुनिया के तमाम बड़े देशों की अर्थव्यवस्था तबाह होने लगी थी. ऐसे में अमेरिका ने अपने उस हथियार का इस्तेमाल किया, जिसे दुनिया डॉलर कहती है. पहले दुनिया के मुल्क कारोबार करने के लिए करेंसी के बजाय गोल्ड पर भरोसा करते थे. वैश्विक आर्थिक संकट के बीच अमेरिका के न्यू हैम्पशायर शहर में 1944 में 44 देशों का सम्मेलन हुआ. इस सम्मेलन में दो बड़े फैसले हुए. पहला ब्रेटन वुड्स समझौता. दूसरा वर्ल्ड बैंक और IMF का बनना. लेकिन इन फैसलों में सबसे अहम ब्रेटन वुड्स समझौता था, जिसके तहत डॉलर को ग्लोबल करेंसी के तौर पर मान्यता दी गई.

समझौते से पहले दुनिया के तमाम देश गोल्ड को अहम मानते थे. सरकारें अपनी करेंसी सोने की डिमांड और कीमत के आधार पर तय करती थीं. लेकिन ब्रेटन समझौते के तहत तय हुआ कि अब से अमेरिकी डॉलर ही सभी करेंसीज का एक्सचेंज रेट तय करेगा. डॉलर इसलिए क्योंकि उस समय अमेरिका के पास सबसे ज्यादा सोना था. आज डॉलर दुनिया की सबसे ताकतवर करेंसी है. दुनियाभर में 90 फीसदी कारोबार डॉलर में ही होता है. 40 फीसदी कर्ज भी डॉलर में ही दिए जाते हैं.

अमेरिकी सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, अमेरिका में दिसंबर 2022 तक 2.25 ट्रिलियन डॉलर की करेंसी सर्कुलेशन में है….जबकि IMF के अनुसार, मार्च 2023 तक दुनियाभर के केंद्रीय बैंकों में 12 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा की विदेशी मुद्रा रखी हुई है. इनमें से साढ़े छह अरब डॉलर सिर्फ अमेरिकी डॉलर है. इसके बाद यूरो है, जिसकी अमेरिकी डॉलर में वैल्यू 2.2 ट्रिलियन डॉलर है.

अब सवाल ये भी खड़ा होता है क्या डॉलर की जगह कोई दूसरी करेंसी ले सकती?

अमेरिकी डॉलर फिलहाल सबसे बड़ी करेंसी है. अब भी दुनिया का आधे से ज्यादा कारोबार डॉलर में ही होता है, लेकिन अब इसके वर्चस्व को चुनौती मिलने लगी है. दुनियाभर के केंद्रीय बैंकों की विदेशी मुद्रा में डॉलर की हिस्सेदारी कम हुई है. 1999 में डॉलर की हिस्सेदारी 72% थी जो अब घटकर 59% पर आ गई है. दुनियाभर के बैंक रिजर्व में डॉलर को कम कर रहे हैं. पश्चिमी देश के जानकारों का मानना है कि डॉलर के दबदबे को यूरो चुनौती दे सकता है. उसकी वजह ये भी है कि क्योंकि यूरोपियन यूनियन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है.
तो क्या युआन अगली ग्लोबल करेंसी है ?

फिलहाल इसके सबसे ताकतवर करेंसी बनने की गुंजाइश बहुत कम है. एक वजह चीन के अधिकारियों का दखल है. वहां कम्युनिस्ट पार्टी के आला लोग ही तय करते हैं कि देश के बाहर कैपिटल फ्लो कितना हो. ये एक तरह से अनिश्चित स्थिति है, जिसमें कभी भी कम-ज्यादा हो सकता है. ऐसे में दूसरे देश चीनी करेंसी में व्यापार का खतरा नहीं लेना चाहेंगे.

दूसरी एक वजह ये है कि अमेरिकी डॉलर आजमाई हुई करेंसी है. 40 के बाद से अब तक लगातार यही ग्लोबल करेंसी बनी रही और सबकुछ लगभग आराम से चलता रहा. फिलहाल डॉलर के पास इतने दशकों का तजुर्बा भी है, और भरोसा भी. इस वजह से भी ज्यादातर देश ” चीनी करेंसी की बजाए डॉलर पर ही टिके हुए हैं.